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बलराज साहनी: हंस से रिजेक्ट हुई कहानी तो बन गया ‘काबुलीवाला’, रबींद्रनाथ टैगोर की सलाह पर बने पंजाबी लेखक

हाइलाइट्स

बलराज साहनी ने सातवीं कक्षा में ‘हकीकत’ नाम की पत्रिका निकाली. हाथ से लिखते थे.
8-10 साल की उम्र में ही बाल्मीकि रामायण पढ़ डाली. उसी शैली में श्लोक भी लिखे.
बलराज साहनी ने अंग्रेजी, हिंदी और पंजाबी में लिखा. कई भाषाओं का ज्ञान था.

(अजय कुमार शर्मा/ Ajay Kumar Sharma)

बलराज साहनी को ज्यादातर लोग बीसवीं सदी के पचासवें-साठवें दशक के एक श्रेष्ठ और लोकप्रिय फिल्म अभिनेता के रूप में जानते हैं. एक अच्छे अभिनेता के तौर पर उनकी यादगार फिल्में हैं-‘धरती के लाल’, ‘हम लोग’, ‘दो बीघा जमीन’, ‘काबुली वाला’, ‘वक़्त’ और ‘गर्म हवा’. लेकिन बलराज साहनी एक अभिनेता ही नहीं बल्कि एक लेखक-साहित्यकार, अनुवादक, मंच कलाकार-निर्देशक, अध्यापक, संपादक, रेडियो उदघोषक, पटकथा लेखक, ट्रेड यूनियन नेता, समाजसेवी भी थे. उनका पूरा जीवन कुछ नया और बेहतर करने की जद्दोजहद से भरा हुआ दिखाई देता है.

बलराज साहनी बुनियादी तौर पर एक लेखक ही थे. अपनी फिल्मी आत्मकथा में उन्होंने लिखा भी है, “मुझे हमेशा ही साहित्यकार बनने का शौक रहा है. जैसा कि मैं पहले कह आया हूं, फिल्मी अभिनेता तो मैं संयोगवश ही बन गया हूं.”

इसी आत्मकथा में उन्होंने अपने साहित्यिक रुझान के बारे में बताते हुए कहा है, “शिक्षा के दौरान मेरा ज़्यादा झुकाव भाषाओं की ओर था. संस्कृत मुझे अच्छी लगती थी. आठ-दस साल की उम्र में ही मैं बाल्मीकि रामायण पढ़ गया था. एक बार उसी शैली में मैंने श्लोक भी लिखे थे और आर्यसमाज के एक वार्षिकोत्सव में सुनाए थे. स्कूल में सबसे ज़्यादा मजा मुझे उस समय आता था जब शिक्षक छोटे-छोटे सांकेतिक वाक्य लिखकर उनके आधार पर हमें कहानी लिखने के लिए कहते थे. साहित्य की पाठ्य-पुस्तकें मुझे अनायास ही याद हो जाया करती थी.”

एक लेखक की हैसियत से बलराज साहनी ने कहानियां लिखीं, कविताएं लिखीं, नाटक-एकांकी लिखे, उपन्यास लिखा, समालोचनाएं लिखीं. यात्रा संस्मरण, रेखाचित्र निबंध, आत्मकथा, डायरी लिखने के अलावा रेडियो तथा फिल्मों के लिए भी लिखा. साहित्य की इतनी विधाओं में लिख पाना आसान नहीं है. यह उनके व्यक्तित्व और जीवन-दृष्टि की व्यापकता और विविधता के कारण ही संभव हुआ.

अंग्रेजी में लेखन की शुरूआत
बलराज साहनी ने तीन भाषाओं-अंग्रेजी, हिंदी और पंजाबी में लिखा. कॉलेज के दिनों में यानी उनका शुरुआती लेखन अंग्रेजी में था. फिल्मों में जाने से पहले तक हिंदी में और फिर अंत समय तक पंजाबी में लिखा. पंजाबी में लिखना उन्होंने गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर की सलाह पर शुरू किया था.

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बलराज साहनी के लिखने-पढ़ने की शुरुआत स्कूल के दिनों में ही हो गयी थी. बकौल भीष्म साहनी (उनके छोटे भाई और प्रख्यात हिंदी लेखक), “जिन दिनों बलराज सातवीं कक्षा में पढ़ते थे उन्होंने ‘हकीकत’ नाम का एक पर्चा निकाला था. यह एक पन्ने की पत्रिका थी और इसे हाथ से लिखना पड़ता था. इसमें स्थानीय हाकी मैच, धार्मिक प्रवचन तथा मूर्तिपूजा, विधवा आदि विषयों पर टिप्पणी दी जाती थी. इस पत्रिका के तीन अंक निकले.” इस समय बलराज रावलपिंडी के डी.ए.वी. स्कूल के छात्र थे.

1930 में बी.ए. की पढ़ाई के लिए बलराज साहनी गवर्मेंट कॉलेज, लाहौर पहुंचते हैं और अंग्रेजी साहित्य में एम.ए. की पढ़ाई यानी 1934 तक यहीं रहते हैं. अंग्रेजी और पाश्चात्य रहन-सहन तथा साहित्य-संस्कृति की अनेक विधाओं से उनका पहला संपर्क यहीं होता है. यहां के खुले वातावरण में वह कॉलेज की तरफ से आयोजित होने वाली तरह-तरह की गतिविधियों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लेते हैं. नाटक, खेलकूद, लेखन, घुमक्कड़ी…और भी बहुत से क्रिया – कलाप. वे कॉलेज के बोट क्लब के सहायक सचिव होने के साथ ही छात्र संघ के प्रधान भी रहे. गवर्मेन्ट कॉलेज में पढ़ते हुए ही वे अंग्रेजी में कविताएं और कहानियां लिखते थे. कुछ कहानियां कॉलेज की पत्रिका ‘रावी’ में प्रकाशित हुई थीं. इनमें एक मर्मस्पर्शी प्रेम-कथा थी, जिसका घटना-स्थल चिनारी नाम का एक गांव था जो रावलपिंडी से कश्मीर जाते हुए रास्ते में पड़ता है. कहानी में एक नौजवान बारिश में सड़क बंद हो जाने पर एक ढाबे वाले के घर में शरण लेता है और उसकी युवा पत्नी की ओर आकृष्ट होता है. वह युवती नौजवान में रुचि लेना शुरू ही करती है कि सड़क की मरम्मत हो जाने से रास्ता खुल जाता है और नौजवान को वहां से जाना होता है. यह कहानी बहुत चर्चित हुई थी.

इससे पहले 1931 में सरदार भगत सिंह को फांसी देने और तुरंत-फुरंत रात में ही उनका दाह संस्कार करने की अंग्रेजों की साजिश ने बलराज साहनी को हिलाकर रख दिया. भगत सिंह की मौत पर उन्होंने एक बड़ी मार्मिक कविता अंग्रेजी में लिखी थी. पढ़ाई खत्म होने के बाद श्रीनगर (कश्मीर) में छुट्टियां मनाते हुए बलराज की मुलाकात प्रसिद्ध हिंदी लेखक देवेंद्र सत्यार्थी से हो गई. यह अक्टूबर 1934 की बात है.

देवेंद्र सत्यार्थी उन दिनों पूरे देश में घूम-घूमकर लोक गीतों का संकलन कर रहे थे. श्रीनगर की प्रताप लाइब्रेरी में वे किसी ऐसे व्यक्ति के बारे में जानना चाह रहे थे जो स्थानीय स्तर पर लोक गीत संग्रह में उनकी मदद कर सके. एक सूटेड-बूटेड नौजवान उनके पास खड़ा होकर उनकी बातें ध्यान से सुनने लगा और उनके लाइब्रेरी से निकलते ही साथ हो लिया. वह उन्हें अपने घर (जो हजूरी बाग में था) भी ले गया. यह नौजवान बलराज साहनी ही थे. देवेंद्र सत्यार्थी को एक उपयोगी साथी मिल गया था. दोनों का यह परिचय ताउम्र बना रहा. बाद में देवेंद्र सत्यार्थी, बलराज के अनुरोध पर उनके रावलपिंडी वाले घर पर भी आकर रहे और दोनों ने मिलकर आसपास के इलाकों से ढेरों लोकगीत इकट्ठे किए.

यही वह समय था जब बलराज साहनी हिंदी साहित्य के व्यापक स्वरूप से परिचित और प्रभावित होते हैं और हिंदी में लेखन की शुरुआत करते हैं. हिंदी लेखन की तरफ झुकाव का एक दूसरा कारण सुप्रसिद्ध लेखक तथा संपादक चंद्रगुप्त विद्यालंकार भी थे. विद्यालंकार जी उनकी फुफेरी बहन (जो खुद एक लेखिका थी) पुरुषार्थवती के पति थे. यानी बलराज साहनी के जीजा जी.

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6 सितबंर, 1936 को बलराज साहनी का विवाह दमयंती उर्फ दम्मो से हुआ. बलराज अभी तक अपने पिता का जमा-जमाया व्यवसाय संभाल रहे थे, किंतु उनका मन उसमें लग नहीं रहा था. उनका मन बेचैन हो रहा था. यह बेचैनी किसी बड़े क्षेत्र में अपने को व्यक्त न कर पाने की थी. अपने को व्यक्त करने की ललक अब उनसे नए से नए तर्ज़ुबे करवाने की पृष्ठभूमि बना रही थी.

लाहौर में निकाला ‘मंडे मार्निंग’ साप्ताहिक पत्र
1937 में श्रीनगर में गर्मियों की छुट्टियां बिताते हुए बलराज साहनी ने अंग्रेजी में ‘कुंग-पोश’ नाम की एक साहित्यिक पत्रिका निकालने का भी मन बनाया था. दुर्गाप्रसाद धर जो उन दिनों छात्र राजनीति में काफी सक्रिय थे, बलराज साहनी के सहयोगी बने. चंदा इकट्ठा करने के लिए और ग्राहक बनाने के लिए रसीद-बुकें भी छपवा ली गईं, लेकिन बात इससे आगे नहीं बढ़ सकी. तभी सितंबर,1937 में बलराज ने अपनी पत्नी के साथ अचानक लाहौर जाने का फैसला कर लिया. लाहौर में आकर उन्होंने पहली बार संपादन और प्रकाशन में हाथ आज़माया. ‘मण्डे-मार्निंग’ नाम के एक साप्ताहिक पत्र की शुरूआत की गई. संपादक मंडल में उनके साथ बी.पी.एल. बेदी, फ्रेडाबेदी, जगप्रवेश चन्द्र के नाम थे. तय यह किया गया था कि पत्रिका में खबरों के अलावा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के विवरण, कहानियां और कविताएं होंगी और साथ ही समाजवादी विचार धारा और सिद्धांतों से संबंधित लेख भी रहेंगे. इस पत्रिका के बड़े-बड़े पीले रंग के विज्ञापनों का एक बंडल उन्होंने अपने भाई भीष्म साहनी को श्रीनगर भेजा था. इस बारे में भीष्म साहनी ने लिखा है, “हम लोग बड़ी बेचैनी से पत्रिका के पहले अंक का इंतजार करने लगे, पर जब वह हमारे हाथ लगी तो उसे देखकर मेरा दिल बैठ गया. दो पन्नों की इस पत्रिका में छपाई की अनेकों गलतियां थीं. हम नहीं जानते थे कि लाहौर में इसका प्रभाव कैसा पड़ा था, पर यह प्रयास बड़ा निराशा जनक था.”

आर्थिक और स्वास्थ्य की दृष्टि से भी यह प्रयास बलराज साहनी को काफी मंहगा पड़ा. दो-तीन अंकों के बाद पत्रिका बंद हो गई.

बलराज साहनी की पहली हिंदी कहानी
लाहौर में रहते हुए ही उनकी पहली हिंदी कहानी ‘शहजादों का ड्रिंक’ पंडित बनारसी दास चतुर्वेदी के संपादन में निकलने वाले प्रमुख हिंदी पत्र ‘विशाल भारत’ में छपी. इस कहानी की काफी चर्चा हुई. कहानी में शैम्पेन को ‘शहजादों का ड्रिंक’ कहा गया है. बनारसी दास चतुर्वेदी ने पहले जब यह कहानी वापस की थी तो लिखा था, “वे इसे छापने में असमर्थ हैं, यद्यपि उन्हें यह कहानी उतनी ही अच्छी लगती थी जितनी चेखव की कोई अच्छी रचना.”  इसी समय उनकी एक अन्य कहानी ‘वापसी व वापसी’ की भी खूब चर्चा हुई थी. यह कहानी पहले ‘हंस’ में छपी, फिर उर्दू मासिक ‘अदेब लतीफ’ में प्रकाशित हुई. बाद में कृश्न चंदर ने अपने संपादन में निकले उर्दू कहानी संग्रह ‘नए फसाने’  में भी इस कहानी को शामिल किया.

अज्ञेय को माना अपना गुरु
इस बीच बलराज साहनी लाहौर छोड़ कलकत्ता जा पहुंचे. उन दिनों वहां उनके एक सहपाठी के बड़े भाई और हिंदी के युवा लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ रह रहे थे. अज्ञेय को बलराज ने अपना गुरु माना था. इसके पीछे एक रोचक किस्सा है जिसका जिक्र ‘बलराज-संतोष साहनी समग्र’ के संपादक डा. बलदेव राज गुप्त ने अपने संपादकीय में इस तरह किया है, “बलराज साहनी प्रसिद्ध साहित्यकार श्री हीरानंद सच्चिदानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ से बुरी तरह झटका खाने के बाद भी उन्हें ‘बस्ता’ (कश्मीरी में उस्ताद या गुरु) का दर्जा देते थे. चतुर्वेदी जी के बाद अज्ञेय जी ‘विशाल भारत’ के संपादक हुए थे. बलराज ने उन्हें अपनी दूसरी कहानी भेजते हुए लिखा, “मेरा हिंदी ज्ञान बहुत कम है. मैं आपसे हिंदी में लिखना सीखूंगा. मैं कलम के सहारे जिंदा रहने की कोशिश कर रहा हूं. मेरी रचना के लिए कुछ भी पारिश्रामिक देंगे तो आपका आभार मानूँगा.”

कहानी लौटाते हुए अज्ञेय ने अंग्रेजी में हाशिए के बाहर एक कोने में लिखा “कहानी की भाषा एकदम अशुद्ध है. इस पर मेहनत करने का अर्थ होगा कि आप पारिश्रामिक मांगें नहीं बल्कि पारिश्रामिक दें.”

शांति निकेतन में बने हिंदी टीचर
बलराज साहनी निराश नहीं हुए. कलकत्ता से निकलने वाले ‘सचित्र भारत’ में वह हास्य-व्यंग्य के लेख और कहानियां लिखने लगे. उस समय उन्हें इसके लिए चार रुपये प्रति सप्ताह मिलता था. उनकी रोचक बाल कथा ‘ढपोर शंख’ इसी दौरान लिखी गई. लेकिन इस लेखन से घर का खर्च चलाना मुश्किल हो रहा था. दमयंती गर्भवती थीं. इसी बीच शांति निकेतन में एक हिंदी अध्यापक की जगह खाली हुई. वेतन था चालीस रुपये मासिक. बलराज ने झट से अर्जी दे दी और वे वहां के लिए चुन भी लिए गए.

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शांति निकेतन में उन्हें हिंदी के यशस्वी लेखक पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी का सान्निध्य मिला. यहां गुरुदेव रबींन्द्रनाथ ठाकुर की गरिमामय उपस्थिति के साथ-साथ क्षितिज मोहन सेन, नंदलाल बोस जैसे महान लेखक-कलाकारों की भी उपस्थिति थी. वैसे भी शांति निकेतन उन दिनों देश की सांस्कृतिक राजधानी होने का गौरव रखता था. यह 1937 के जाड़ों की बात थी. शांति निकेतन का अनुभव उनकी जीवन-दृष्टि बदलने वाला रहा. अध्यापन के साथ-साथ हिंदी में कहानी लिखना भी उन्होंने जारी रखा. उनकी कहानियां ‘ओवरकोट’ और ‘बसंत क्या कहेगा’ इसी समय लिखी गई. ‘ओवर कोट’ कहानी इकबाल नाथ नाम एक ऐसे बेरोजगार युवक के बारे में है जो फौज़ में नौकरी पाना चाहता है. यह तथा अन्य  कहानियां समय-समय पर ‘हंस’, ‘विशाल भारत’ और ‘धर्मयुग’ में प्रकाशित होती रहीं. प्रसिद्ध साहित्यकार चंद्रगुप्त विद्यालंकार के अनुसार, 1940 में हिंदी के नवलेखकों में उनका नाम सम्मान के साथ लिया जाने लगा था.

बलराज साहनी की कहानियों पर टिप्पणी करते हुए उनके छोटे भाई और प्रख्यात कहानीकार भीष्म साहनी लिखते हैं, “बलराज की कहानियों में बड़ी सजीवता थी, रचनात्मक ऊर्जा थी. वह नए-नए विषयों पर लिखने लगे थे, जिनका संबंध मात्र निजी भावनाओं अथवा घरेलू स्थितियों से न होकर सामाजिक जीवन के अधिक व्यापक संदर्भ से था.”

पहला कहानी संग्रह
बलराज ने आगे नियमित रूप से कहानियां नहीं लिखीं. कहानियों को पुस्तक के रूप में छपवाने में भी उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी. बहुत ज़्यादा कहने-सुनने पर 1957 में उन्होंने अपने पहले कहानी संग्रह ‘बसंत क्या कहेगा’ को अपने मित्र देवेंद्र बाहरी को प्रकाशित करने की अनुमति दी. इसमें बारह कहानियां थीं.

हजारी प्रसाद द्विवेदी पर लिखा उनका रेखाचित्र ‘द्विवेदी जी हँस रहे हैं’, ‘हंस’ पत्रिका के मार्च 1939 अंक में छपा था. इसके बारे में प्रसिद्ध आलोचक विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक ‘व्योमकेश दरवेश’ में लिखा है, “लेख क्या ललित निबंध है. शैली इतनी मोहक है कि पंक्ति-पंक्ति में द्विवेदी जी के प्रति आत्मीयता का रस टपकता है, मानो द्विवेजी की कलम से ही बलराज साहनी ने लिखा हो. मेरी जानकारी में द्विवेदी जी के गंभीर, फक्कड़, विनोदी और स्फटिक के समान पारदर्शी व्यक्तित्व को चित्रित करने वाला पहला और अद्वितीय लेख जो लेखक के बहुक्षेत्रीय सर्जनात्मक व्यक्तित्व की संभावनाओं को भी उजागर करता है. शायद शांति निकेतन के वातावरण में ही ऐसा  कुछ था जो लेखको को ऐसी जीवंत शैली प्रदान करता था. काश, बलराज साहनी ने हिंदी में प्रचुर साहित्य लिखा होता.”

हजारी प्रसाद द्विवेदी उन्हें सन् 1939 में अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन, बनारस में अपने संग प्रतिनिधि बनाकर ले गए थे जहां बलराज साहनी की भेंट मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, निराला आदि से हुई. द्विवेदी जी से उनका स्नेह-संबंध आगे भी लंबे समय तक बना रहा. भीष्म साहनी के संपादन में निकली पत्रिका ‘नई कहानियां’ के एक स्तंभ ‘प्रश्नोत्तरी’ के लिए बलराज साहनी ने आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी से पांच रोचक प्रश्न पूछे थे और अपनी 25 साल की जान-पहचान का हवाला देते हुए उम्मीद की थी कि वे उनके स्पष्ट जवाब भेजेंगे. द्विवेदी जी ने अपनी चिर-परिचित शैली में इनके उत्तर दिए और इन्हें ‘नई कहानियां’ के नवम्बर 1965 के अंक में प्रकाशित किया गया. बलराज के चार सवाल तो शांति निकेतन में उनके अध्यापन से जुड़े थे और पांचवा सवाल प्रगतिवाद पर उनकी राय तथा हिंदी साहित्य में फैले वाद-विवाद और व्यक्तिगत गुटबंदी को लेकर था.

रबींद्रनाथ टैगोर के कहने पर पंजाबी में लेखन
शांति निकेतन में रहते हुए गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर बलराज को अपनी मातृ भाषा पंजाबी में लिखने की सलाह देते हैं. पहले तो बलराज अपनी भाषा में लिखने के उनके सुझाव को उनका प्रांतीयवाद समझकर हलके में लेते रहते हैं. उनका जवाब होता था, “हिंदी राष्ट्र भाषा है और पूरे देश की भाषा है, मैं किसी प्रांतीय भाषा में क्यों लिखूं? जबकि मैं पूरे देश के लिए लिख सकता हूं.” गुरुदेव कहते, “मैं बांगला में लिखता हूं, जो कि प्रांतीय भाषा है, लेकिन सारा हिंदुस्तान ही नहीं सारा संसार मुझे पढ़ता है.”

बलराज कहते हैं- “मैं आप जैसा महान लेखक नहीं एक छोटा लेखक हूं.”
तब गुरुदेव कहते हैं, “बड़े या छोटे का सवाल नहीं. लेखक का संबंध अपनी धरती से है, अपने लोगों और अपनी भाषा से है. यहीं तुम्हें अपने पन का अहसास होगा.”

एक दिन जब वह वार्षिक हिंदी सम्मेलन में आने के लिए गुरुदेव को निमंत्रण देने पहुंचे तो गुरुदेव ने भाषा की बात फिर शुरू कर दी. बलराज पंजाबी और पंजाबियों की कमियां और उनके पिछड़ेपन के बारे में बताने लगे. गुरुदेव ने कहा कि नानक ने इसी भाषा में लिखा है. उन्होंने बलराज को यह भी कहा कि ऐसा ही प्रचार पहले बांगला के बारे में किया जाता था, लेकिन बंकिम बाबू और मैंने इस भाषा को हजारों नए शब्द देकर समृद्ध बनाया है.

निमंत्रण देने के बाद असमंजस की स्थिति में जब बलराज दरवाजे तक पहुंचे, तभी गुरुदेव ने उन्हें वापस बुलाकर जो शब्द कहे वह उन्हें वर्षों मथते रहे. उन्होंने कहा, “एक वेश्या संसार की सारी दौलत पाकर भी इज्जतदार नहीं बन सकती. तुम पराई भाषा में चाहे जिंदगी भर लिखते रहो, लेकिन न तुम्हारे अपने लोग तुम्हें अपना समझेंगे, न वे लोग, जिनकी भाषा में तुम लिख रहे हो. दूसरों का बनने से पहले तुम्हें अपने लोगों का बनना चाहिए.”

गांधी जी से संपर्क और बीबीसी लंदन का सफर
बाद में बलराज साहनी ने उनके शब्दों की सच्चाई और उसके महत्व को समझा और पंजाबी में लिखना आरंभ किया. इसी बीच उन्हें अचानक सेवाग्राम जाने का निमंत्रण मिला। वहां उन्हें डॉ. जाकिर हुसैन द्वारा प्रस्तावित और गांधीजी द्वारा समर्थित ‘नई तालीम’ योजना की पत्रिका ‘नई तालीम’ में सह-संपादक बनाया जाना था. बलराज तुरंत तैयार हो गए. इसमें सबसे बड़ा आकर्षण गांधी के पास रहने का भी था. वैसे भी अगर शांति निकेतन उस समय देश की सांस्कृतिक राजधानी का दर्ज़ा रखता था तो सेवाग्राम देश की राजनीति राजधानी का सम्मान पा चुका था. शांति निकेतन और सेवाग्राम को उन्होंने अपने लेखन में खूब याद किया है. वे सचमुच वहां कोई सियासी काम नहीं करने गए थे. उनकी रूचि केवल सांस्कृतिक कार्यों और लेखन में ही थी.

1940 में बलराज साहनी लंदन रवाना होते हैं. बी.बी.सी. की भारतीय शाखा में एक उद्घोषक की हैसियत से. लायनल फील्डन जो भारत में ऑल इंडिया रेडियो के निदेशक के रूप में काम कर रहे थे, इग्लैंड में बी.बी.सी. की इस भारतीय शाखा की स्थापना करने जा रहे थे. गांधी जी से उन्होंने बलराज को ले जाने की इज़ाजत ले ली थी. बलराज लंदन में चार साल रहे. इस दौरान उन्होंने लिखा कम और पढ़ा-समझा ज्यादा. उन्होंने अपनी उर्दू को फिर संवारा और गालिब को पूरी तरह पढ़ डाला. हां, कुछ रेडियो रिपोर्ताज और रेडियो नाटक जरूर लिखें. इनमें से एक कृति ‘वह आदमी जिसके सिर में घड़ी है’ की काफी चर्चा हुई थी.

फिल्मी दुनिया में कदम
अप्रैल, 1944 में लंदन से वापसी पर वह बंबई में रुके. एक दिन उनकी मुलाकात अचानक चेतन आनंद से हो गई. चेतन आनंद उनके साथ गवर्मेंट कॉलेज, लाहौर में पढ़े थे और उनसे दो साल जूनियर थे. दोनों अच्छे दोस्त थे और लाहौर में दोनों नाटक वगैरह खेलने में काफी सक्रिय थे. चेतन से बातचीत के दौरान उन्हें यह जानकर खुशी हुई कि अब भारत में भी सभ्य समाज के लोग फिल्मों को उतनी बुरी नजर से नहीं देख रहे हैं. द्वितीय विश्व युद्ध के बाद इन माध्यमों के प्रति लोगों का नज़रिया बदला है. वहीं उन्हें पता चला कि कृश्न चंदर, उपेन्द्रनाथ ‘अश्क’, सआदत हसने मंटो, भगवती चरण वर्मा, जोश मलीहाबादी, अमृतलाल नागर जैसे चोटी के लेखक बंबई में रहकर फिल्मों के लिए कहानियां और गाने लिखकर हजारों रुपये कमा रहे हैं. कृश्न चंदर तो लाहौर में उनके साथी थे जो वहीं के दूसरे कॉलेज एफ.सी. में पढ़ा करते थे. एक बार उन्होंने खुद बलराज साहनी को बताया था कि तुम्हारी कहानियां पढ़कर ही उन्हें कहानीकार बनने का ख़याल आया था.

बलराज साहनी बंबई से जब रावलपिंडी पहुंचे तो कुछ बदले-बदले से थे. उनके भाई भीष्म साहनी लिखते हैं, “उनका सारा अल्हड़पन और लापरवाही गायब हो चुकी थी. अब उनमें बेतुकल्लुफी और हँसी-खिलवाड़ ढूढ़े को नहीं मिलते थे. राजनीति ने, जो पहले उनके लिए गौण हुआ करती थी, अब महत्वपूर्ण हो गयी थी. वे पहले से ज़्यादा गंभीर और बेचैन नज़र आ रहे थे.”

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दरअसल, बलराज लंदन से एक नई दृष्टि-नई समझ लेकर आए थे. अब वे एक मार्क्सवादी थे. वे समझ चुके थे कि एक नागरिक या कलाकार को जीवन का मात्र दर्शक नहीं बने रहना चाहिए उसे अपनी निर्णायक भूमिका निभानी ही चाहिए. लेकिन फिल्मों में अभिनेता के रूप में दाखिल होने का खयाल उन्हें अभी नहीं आया था. अपनी फिल्मी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है, “इंलैण्ड में मैंने पूरे चार साल कुछ भी नहीं लिखा था, पर अपने आपको साहित्यकारों में गिनने का मुझे अब भी चाव था. यह सोचकर हौसला हुआ कि अगर कोई और काम नहीं बना, तो शायद फ़िल्मों के लिए कहानियां लिखकर रोज़ी कमाने लायक हो जाऊंगा.”

इसी वर्ष रावलपिंडी से वे छुट्टियां मनाने फिर अपनी पसंदीदा जगह कश्मीर जा पहुंचे. लेकिन इस बीच साहित्यिक दुनिया में क्या-क्या हुआ, जानने के लिए उन्होंने श्रीपत राय से ‘हंस’ पत्रिका की पिछले चार साल की फाइल मंगाकर पढ़ी. उन्हें दो रचनाओं ने बेहद प्रभावित किया. एक थी विजन भट्टाचार्य का एकांकी नाटक ‘जबानबंदी’ जो हिंदी में ‘अंतिम अभिलाषा’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ था. यह बंगाल के अकाल-पीड़ित किसानों पर था. दूसरी रचना थी कृश्न चंदर की ‘अन्नदाता’.

‘हंस’ से वापस हुई कहानी से टूटा दिल
रोजगार की तलाश में उन्होंने कश्मीर से पं. हजारी प्रसाद द्विवेदी को भी पत्र लिखा था और उनसे शांति निकेतन के हिंदी भवन में फिर से शरण देने की प्रार्थना की थी. उनका ‘हाँ’ में उत्तर आ भी गया था लेकिन तभी घटित दो घटनाओं ने उनका फिल्मों में अभिनय करना तय कर दिया. पहली घटना का ज़िक्र उन्होंने अपनी आत्मकथा में इस तरह किया है, “विलायत जाने से पहले मेरी कहानियां ‘हंस’ में बाकायदा प्रकाशित होती रहती थीं. मैं उन भाग्यशाली लेखकों में था जिनकी भेजी कोई भी रचना अस्वीकृत नहीं हुई थी. विलायत में चार साल तक मैंने एक भी कहानी नहीं लिखी थी. अभ्यास टूट चुका था. अब मैंने उसे बहाल करना चाहा. एक कहानी लिखकर ‘हंस’ को भेजी, तो वह वापस आ गई. मेरे स्वाभिमान को गहरी चोट लगी. इस चोट का घाव कितना गहरा था, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके बाद मैंने कोई कहानी नहीं लिखी.”

दूसरी घटना थी इन्हीं छुट्टियों में चेतन आनंद का उनके पास कश्मीर आना. वे अपने द्वारा निर्देशित की जाने वाली फ़िल्म ‘नीचा नगर’ में बलराज और उनकी पत्नी दमयंती से मुख्य पात्रों की भूमिका करवाना चाहते थे. दोनों को बीस हज़ार रुपये पारिश्रमिक देने की बात हुई. चेतन के फिल्मों में काम करने के इस निमंत्रण ने जैसे चोट पर मरहम का काम किया. उन्होंने उनका प्रस्ताव मान लिया. इस तरह एक अस्वीकृत कहानी ने बलराज का फिल्मों में जाने का मार्ग खोल दिया.  किसी कारणवश फिल्म की योजना टल गई. बलराज के साथ अब दम्मो ही नहीं उनका पांच साल का बेटा परीक्षित और एक साल की बेटी शबनम भी थी. वे वहां चेतन के परिवार के साथ ही रह रहे थे लेकिन चेतन और वे दोनों ही आर्थिक तंगी के शिकार थे.

इन्हीं दिनों बलराज साहनी का संबंध भारतीय जन नाट्य संघ- इप्टा से होता है जो ताउम्र बड़ी शिद्दत के साथ बना रहता है. उन्होंने इप्टा के साथ काम करते हुए कई नाटक निर्देशित किए, लिखे, अभिनय किया और इन्हें पूरे देश में जगह-जगह मंचित किया. इस समय इप्टा में देश की एक से एक से बढ़कर एक प्रतिभाशाली हस्तियां काम कर रहीं थीं. सांस्कृतिक चेतना से भारतीय समाज को बदलने का यह अपने समय का सबसे बड़ा सामूहिक प्रयास था.

पहला फिल्मी ब्रेक
बलराज ने इस समय आर्थिक संकट से निकलने के लिए कई रेडियो प्रोग्राम किए और छोटे-मोटे अनुवाद कार्य भी. तभी साथियों की मदद से उन्हें फणि मजूमदार की फिल्म ‘इंसाफ’ में एक छोटा सा रोल मिला. दमयंती भी फ़िल्मों में काम तलाश रही थी तभी उन्हें पृथ्वीराज कपूर के ‘पृथ्वी थियेटर’ में मुख्य अभिनेत्री का कांट्रेक्ट मिल गया. दोनों का जीवन ढर्रे पर लौट ही रहा था कि 29 अप्रैल 1947 को  दमयंती (दम्मो) अचानक चल बसी. इस सदमे से बलराज साहनी उबरे भी नहीं थे कि आज़ादी के नाम पर विभाजन और सांप्रदायिक दंगों ने उन्हें हिलाकर रख दिया. वे बच्चों के साथ श्रीनगर वापस आ गए थे. इस निराशा की स्थिति में हिंदी के एक अन्य लोकप्रिय और प्रसिद्ध लेखक अमृतलाल नागर उनकी सहायता के लिए आगे आते हैं. ‘गुंजन’ नाम की फिल्म (जो उन्होंने लिखी थी) के नायक का रोल वे बलराज को दिलवाते हैं. फिल्म में नलिनी जयवंत और त्रिलोक कपूर के साथ उन्हें अभिनय करना था. वीरेंद्र देसाई जो नलिनी जयवंत के पति भी थे, फिल्म का निर्देशन कर रहे थे. अपनी अनियत्रिंत मनोदशा के चलते बलराज न ही फिल्म में ठीक से अभिनय कर पाए और न ही फिल्म यूनिट को किसी और तरह से कोई सहायता कर पाए. फिल्म फ्लॉप हो गयी. उन्हें इस बात का आजीवन दुख रहा कि उनकी वजह से नागर जी जैसा प्रतिभाशाली लेखक फिल्मों में अपना कैरियर नहीं बना सका.

बलराज साहनी का दूसरा विवाह
मार्च, 1949 में बालराज साहनी ने दूसरा विवाह संतोष के साथ किया. संतोष उनकी फुफेरी बहन थी. यह लड़कपन का प्यार था जिसे उस समय ‘जूनून’ कहकर दबा दिया गया था. परिवार के बुजर्गों को यह विवाह नागवार गुजरा. शादी के तुरंत बाद ही उन्हें कम्युनिस्ट पार्टी की गतिविधियों में भागीदारी के चलते गिरफ्तार कर लिया गया. वे छह माह जेल में रहे. यह दौर आर्थिक कष्टों के लिहाज से भी काफी विकट था. पैसों के लिए उन्हें छोटे-मोटे काम फिर करने पड़ रहे थे. पत्नी संतोष के साथ उन्होंने एक रूसी फिल्म के संवाद हिंदुस्तानी भाषा में डब किए. चेतन आनंद के बैनर नवकेतन के लिए ‘बाजी’ फिल्म की पटकथा और संवाद लिखे. इस फिल्म का निर्देशन गुरुदत्त ने किया था. उन्हें अपने बेटे परीक्षित से अपने साथ फिल्म ‘हलचल’ में अभिनय भी करवाना पड़ा. तभी उन्हें जिया सरहदी की फिल्म ‘हम लोग’ में एक बेरोजगार युवक का रोल मिला. फिल्म सफल हुई तो बलराज का आत्मविश्वास भी लौटा और उनके अभिनय में भी स्वाभाविकता आई. इसके बाद विमल राय की फिल्म ‘दो बीघा जमीन’ से उनको बेहद प्रसिद्धि और सम्मान मिला. उनके अभिनय को देश ही नहीं विदेशों में भी सराहा गया.

पंजाबी भाषा सीखने की ललक
फिल्मी दुनिया में उनका 10 साल का संघर्ष अब खत्म होने को था. जहां पिछले दस सालों में उन्होंने मुश्किल से दस फिल्मों में काम किया था वहीं आने वाले 19 वर्षों में उन्होंने 120 से ज्यादा फिल्मों में अभिनय किया. फिल्मों में आर्थिक दृष्टि से सफल और स्थिर हो जाने के बाद उनका साहित्य प्रेम फिर से जाग उठा. लेकिन अब साहित्य पढ़ने और लिखने की भाषा पंजाबी थी. शांति निकेतन में गुरुदेव रबीन्द्रनाथ ठाकुर की बात उन्हें याद थी. 1953 से ही वह इस भाषा को सीखने और लिखने में पारगंत होने के लिए अपने भाई भीष्म साहनी को गुरुमुखी में पत्र लिखने लगे थे.

12 मई, 1955 के भीष्म साहनी को एक पत्र में बलराज लिखते हैं, “मुझे फिल्मों के साथ तनिक भी लगाव नहीं है. मुझे केवल साहित्य से प्रेम है, और उसमें भी सबसे पंजाबी साहित्य से. यदि मैं पंजाबी भाषा में कोई मौलिक, रचनात्मक लेखन न भी कर सकूं तो कम से कम पंजाबी भाषा में अनुवाद-कार्य तो कर ही सकता हूं.” वे पंजाबी बड़ी ललक से सीख भी रहे थे. भीष्म साहनी ने लिखा है, “वह सचमुच बड़ी लगन के साथ प्रतिदिन घंटों पंजाबी भाषा का अध्ययन कर रहे थे. पढ़ाई के अलावा वाक्यांश, लोकोक्तियों, मुहावरे आदि लिख-लिखकर कॉपियां भरने लगे थे. वह माताजी के पास देर-देर तक बैठकर उनके मुंह से निकलने वाले प्रत्येक मुहावरे तथा वाक्य को नोट करते. वह गुरुद्वारों में जाते, गुरुवाणी और रागियों के गीत सुनते.”

इस बीच उन्होंने पंजाबी टाइपराइटर भी खरीद लिया था, और कई बार काम करने के लिए उसे स्टूडियो भी ले जाते. वह बार-बार पंजाबी लेखकों से मिलने पंजाब की यात्रा पर निकल जाते. कुछ ही वर्षों में अनेक पंजाबी लेखक और नाटककार उनके मित्र बन गए. कुछ नाम थे- नानक सिंह, गुरुबख्श सिंह, नवतेज, जसवंत सिंह कंवल, गुरुशरण सिंह आदि. पंजाबी लेखकों, कलाकारों से मिलने या उनसे जुड़े स्थानों पर जाने की उनमें बड़ी इच्छा रहती. वर्षों पहले कश्मीर के सुप्रसिद्ध कवि मेहजूर से मिलने और उनसे कुछ गीत लेने वे कश्मीर घाटी के अंदर दूर के एक गांव तक चले गए थे. बाद में उन्होंने उन पर कश्मीर सरकार के सहयोग से एक फीचर फिल्म भी बनाई थी जो कश्मीरी भाषा की पहली फीचर फिल्म थी. इसमें मेहजूर की भूमिका उनके बेटे परिक्षित साहनी ने निभाई और कवि के पिता की भूमिका स्वयं उन्होंने. इसका निर्देशन प्रभात मुखर्जी ने किया था. दिल्ली आने पर वे गालिब की कब्र पर जरूर जाते. एक बार प्रसिद्ध लेखक जैनेन्द्र के घर भी उनसे मिलकर आए.

विभिन्न भाषाओं के लेखकों ही नहीं विभिन्न भाषाओं को भी सीखने के लिए बलराज साहनी हमेशा तत्पर रहते. बचपन में कट्टर आर्यसमाजी परिवार में रहते हुए उन्होंने हिंदी और संस्कृत सीखी ही थी. स्कूल में पढ़ाई का माध्यम उर्दू था. मैट्रिक में दो में से एक वैकल्पिक विषय संस्कृत था जो इंटरमीडिएट में भी रहा. लेकिन इंटरमीडिएट में पढ़ाई का माध्यम अंग्रेजी था. इंग्लैंड जाने पर उन्होंने उर्दू को फिर से सुधारना शुरू किया था. बांग्ला में उनकी रुचि बचपन में गुरुकुल की पढ़ाई के दौरान आश्रम में ठहरे एक साधु के चलते हो गई थी. शांति निकेतन में उन्होंने इसे संवारा-सुधारा और अच्छा अधिकार प्राप्त कर लिया था. गुरुदेव की सभी रचनाएं उन्होंने मूल बांग्ला में ही पढ़ी थीं. बंबई में रहते हुए उन्होंने बड़े उत्साह से गुजराती और मराठी सीखी. अक्टूबर, 1962 में वह पाकिस्तान के दौरे पर गए और वहां से लौटकर उन्होंने इसे ‘मेरा पाकिस्तानी सफ़र’ नाम से लिखा. यह पंजाबी भाषा में लिखी उनकी पहली महत्त्वपूर्ण रचना थी. यह यात्रा-वृत्तांत मानवीय संवेदनाओं का बड़ा ही संवेदनशील दस्तावेज़ है. लाहौर में वे जिस विश्वविद्यालय (गवर्नमेन्ट कॉलेज) में पढ़े थे उसी के प्रिंसिपल डॉ. नज़ीर अहमद के यहां ठहरते हैं. वे अपने पुश्तैनी कस्बे भेरा जाते हैं. रावलपिंडी में अपने लड़कपन के दोस्तों और पड़ोसियों से मिलते हैं. कोई दोस्त तांगा चला रहा है, तो कोई ड्राइवर है. एक दोस्त तहसीलदार है. जब वह अपना घर देखने छाछी मोहल्ले में जाते हैं तो वहां रह रहे मुस्लिम परिवार में बारात आई हुई होती है. बलराज वहां घराती बन बारात को खाना परोसने लगते हैं.

कविता के आस्‍वादन की नई दुनिया है तजेंद्र सिंह लूथरा का ‘एक नया ईश्‍वर’

इस यात्रा-वृत्तांत को पाठकों ने बेहद पसंद किया. पंजाबी भाषा में लिखने का उनका आत्मविश्वास लगातार बढ़ता जा रहा था. इस बदलाव पर उन्होंने भीष्म साहनी को एक पत्र में लिखा- “अब मैं बड़ी आसानी से किसी भी विधा पर भले ही वह संस्मरण हों कविता हो कुछ भी हो निसंकोच लिखने लगाता हूं. भाषा आड़े नहीं आती. मुझे लगता है जैसे मैं अपने घर पहुंच गया हूं.”

इस बीच बंबई से निकलने वाली पंजाबी पत्रिका ‘रणजीत’ में वह नियमित पुस्तक समीक्षाएं लिख रहे थे. पंजाब से निकलने वाली ‘प्रीतलड़ी’ तथा दिल्ली से निकलने वाली ‘आरसी’ में भी उनके पंजाबी भाषा में लिखे संस्मरण, कविताएं, लेख लगातार प्रकाशित हो रहे थे. 1965 के आसपास भीष्म साहनी जब हिंदी पत्रिका ‘नई कहानी’ का संपादन कर रहे थे तो उनके आग्रह पर बलराज ने अपनी अनेक रचनाएं पंजाबी में ही भेजी थीं, जिनका हिंदी अनुवाद कर प्रकाशित किया गया. ‘गैर ज़ज़बाती डायरी’ और ‘फिल्मी सरगुजश्त’ संग्रहों की कई रचनाएं ‘नई कहानी’ में ही प्रकाशित हुईं.

बलराज साहनी का रूसी सफरनामा
‘मेरा पाकिस्तानी सफ़र’ के बाद 1969 में ‘मेरा रूसी सफ़रनामा’ प्रकाशित हुआ. बलराज साहनी पहले भी कई बार रूस की यात्रा कर चुके थे. एक कलाकार के रूप में या अतिथि के तौर पर. लेकिन इस बार वे एक भारतीय प्रतिनिधि मंडल के सर्वे-सर्वा यानी अध्यक्ष बनकर गए थे. इसमें उनके साथ थे भारत के पूर्व राष्ट्रपति ज्ञानी जैल सिंह, डा. बी.एन. दातार और कॉमरेड गोपालन. इस यात्रा में ज्ञानी जैल सिंह ने उनकी अच्छी दोस्ती हुई और खूब हँसी-मजाक चला. रूस में कई बार इस टोली में उनके बेटे परिक्षित भी शामिल हो जाते जो वहां अभिनय की पढ़ाई करने गए हुए थे. इस पुस्तक में दिन-प्रतिदिन के रोचक और प्रेरणादायक अनुभवों का सच्चा और सटीक विवरण मिलता है. इन्हें बलराज ने गप्प-शप्प के अंदाज में लिखा है। पर जरूरत पड़ने पर गंभीर और तल्ख  टिप्पणियां भी की हैं. इस सफरनामे की भी खूब तारीफ हुई और इस पर उन्हें इस वर्ष का प्रतिष्ठित ‘सोवियत भूमि नेहरू पुरस्कार’ प्रदान किया गया.

इसी समय उन्होंने एक पंजाबी नाटक ‘बापू की कहेगा’ पर काम करना शुरू किया. दो अंकीय इस नाटक को उन्होंने कई बार संशोधित किया. यह एक सामाजिक नाटक था. हिंदू-मुसलमानों के बीच साम्प्रदायिक दंगों की पृष्ठभूमि पर बलराज एक ऐसी काल्पनिक दुनिया बनाते हैं जिसमें 65 वर्षीय गांधीवादी कार्यकर्ता घायल होने की अवस्था में अस्पताल में गांधी, नेहरू, भगत सिंह, सुभाष चंद्र बोस से संवाद करते हैं और ‘वर्तमान’ समस्याओं के समाधान के बारे में पूछते हैं. यह नाटक उनकी मृत्यु के उपरांत के बाद पहली जन्मतिथि पर (1974) दिल्ली में ‘इप्टा’ बंबई  के कलाकारों द्वारा किया गया था. इसका निर्देशन सुप्रसिद्ध फिल्म निर्देशक एम.एस. सथ्यू ने किया था. इस दौरान उनकी दो लेख मालाएं पंजाबी पत्रिकाओं में लगातार प्रकाशित हो रही थीं. इन्हें  बाद में क्रमशः ‘मेरी फिल्म सरगुज़श्त’ और ‘ग़ैर जज़बाती’ डायरी शीर्षक से पुस्तक के रूप में प्रकाशित किया गया. उनके इस लगातार लेखन को अततः पंजाब ने समझा और 1971 में उन्हें वहां की सरकार के भाषा विभाग ने ‘लेखक शिरोमणि पुरस्कार’ से सम्मानित किया.

पंजाबी में उनकी छंद-मुक्त कविताएं भी छप रही थीं. ‘प्रीतलड़ी’ में 1972 में ‘वेटर दी वार’ शीर्षक से लंबी कविता प्रकाशित हुई. इसमें एक वेटर के मन को तलाशा गया है और समाज पर तल्ख टिप्पणियां की गई हैं. अपने अंतिम दिनों में वह एक बड़े आकार के उपन्यास ‘एक सफ़र एक दास्तां’ पर काम कर रहे थे. यह उपन्यास उन्होंने 12 अप्रैल, 1973 की रात तक लिखा था और 13 अप्रैल, 1973 को दिल का दौरा पड़ने से उनकी मृत्यु हो गयी थी. पंजाब, पंजाबी भाषा और संस्कृति को टूट कर चाहने वाले शख्स ने अपने जाने का दिन भी ‘वैशाखी’ तय किया था.

बलराज साहनी का जन्मदिवस 1 मई मजदूर दिवस के रूप में मनाया जाता है तो ‘वैशाखी’ पंजाब के किसानों का सबसे बड़ा त्यौहार है. इस विचित्र संयोग को क्या कहेंगे?

बलराज साहनी की पंजाबी में तेरह से ज़्यादा पुस्तकें छपीं. इनमें से कुछ पुस्तकें बी.ए., एम.ए. के पाठ्यक्रमों में भी लगीं. उनके पंजाबी लेखन के बारे में टिप्पणी करते हुए पंजाबी के प्रसिद्ध लेखक आलोचक सरदार कपूर सिंह गुरनाम लिखते हैं- “वह जो कुछ भी लिखते हैं, सीधा दिल की गहराइयों में उतरता है, क्योंकि वह उनके अनुभवों की उपज है. जिस भांति दूध में मिठास घुली रहती है, वैसे ही उनके लेखन में उनका मधुर व्यक्तित्व घुला रहता है. कभी-कभी गंभीर वैज्ञानिक, सामाजिक तथा दार्शनिक सवालों की व्याख्या करने के लिए वे वार्तालाप शैली का प्रयोग करते हैं जो बड़ी असरदार है. उनकी शैली मूलतः दलील पेश करने वाली शैली है इस कारण वह पाठकों की सोच को जगाती है.”

बलराज साहनी की मृत्यु के बाद पंजाबी और हिंदी में लिखे उनके विपुल लेखन को उनकी पत्नी संतोष साहनी ने (जो खुद भी एक लेखिका हैं) पुस्तकों के रूप में लाने का प्रयास किया. इसमें उनके सहयोगी बने चन्द्रगुप्त विद्यालंकार, भीष्म साहनी, सुखवीर और बलराज साहनी के सचिव राजेंद्र भाटिया. इसके लिए ‘बलराज साहित्य प्रकाशन समिति’ बनाई गई. दिल्ली में उनकी रचनाओं के हिंदी प्रकाशन का जिम्मा संभाला चद्रगुप्त विद्यालंकार ने. इस तरह हिंद पाकेट बुक्स के संचालक और बलराज के मित्र प्रकाश पंडित ने ‘पाकिस्तान का सफर’ एवं  ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ को हिंदी के साथ-साथ उर्दू में भी प्रकाशित किया. दस पुस्तकों का प्रकाशन राजपाल एण्ड संस के अध्यक्ष विश्वनाथ जी, सरस्वती विहार के दीनानाथ मल्होत्रा, आत्माराम एंड संस के पुरी जी को दिया गया. पंजाबी में यही पुस्तकें नानक सिंह पुस्तक माला और गुरु नानक देव युनिवर्सिटी प्रकाशन के अध्यक्ष डा. प्यारा सिंह जी ने प्रकाशन के लिए ले ली. हिंदी पत्र-पत्रिकाओं से साम्रगी जुटाने में बनारसी दास चतुर्वेदी, धन्य कुमांर जैन और अमृत राय ने उनकी मदद की.

बलराज साहनी की जन्मतिथि 1 मई, 1974 को दिल्ली के सप्रू हाउस में इन्द्र कुमार गुजराल ने इन पुस्तकों का विमोचन किया. पंजाब के प्रसिद्ध लेखक गुरबख़्श ने पूरे पंजाबी समाज का प्रतिनिधित्व किया. इन सबको हिंदी में एक साथ ‘बलराज-संतोष साहनी समग्र’ के रूप में हिंदी प्रचारक संस्थान, वाराणसी ने 1994 में प्रकाशित किया. इसके संपादक हैं डा. बलदेव राज गुप्त जो उस समय बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में पत्रकारिता विभाग में प्रोफ़ेसर थे. इसमें 880 पृष्ठों में उनके लिखे को समेटा गया है. लेकिन संपादन में कोई ज़्यादा मेहनत नहीं की गई है. ये रचनाएं कब लिखी गईं, उनकी मूल भाषा क्या थी, यह सबसे पहले कब और कहां प्रकाशित हुई? अगर इनका पंजाबी से अनुवाद किया गया तो किसने किया आदि जानकारियां सिरे से गायब हैं. अगर यह लेखन पुस्तकों के रूप में प्रकाशित हुआ तो मूल पुस्तकों के क्या नाम थे और अनूदित पुस्तकों के क्या नाम थे? इतना ही नहीं कुछ प्रकाशित सामग्री इस संकलन में भी नहीं आ पाई हैं.

मेरे पास बलराज साहनी की लिखी ‘यादें’ शीर्षक से एक पुस्तक है जिसे ‘मयूर पेपर बैक्स’ दिल्ली ने 1972 में प्रकाशित किया है. इसमें दस संस्मरण (127 पृष्ठ) हैं जो बलराज साहनी समग्र में शामिल नहीं हैं. क्या मालूम ऐसा और भी बहुत कुछ इसमें शामिल होने से रह गया हो.

मेरी फिल्मी आत्मकथा
चलते-चलते उनकी कुछ और महत्त्वपूर्ण पुस्तकों का  जिक्र. ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ हिंदी में हिंद पॉकेट बुक्स, दिल्ली ने 1974 में पुस्तक के रूप में प्रकाशित की. इससे पहले यह धारावाहिक रूप में अमृत राय द्वारा संपादित ‘नई कहानियां’ पत्रिका में छपी थी. पंजाबी मासिक पत्रिका ‘प्रीतलड़ी’ में भी इसका प्रकाशन बलराज साहनी के जीवन काल में ही हो गया था.

दो सौ पृष्ठों की पुस्तक ‘मेरी फिल्मी आत्मकथा’ में बलराज साहनी हिंदी सिनेमा की अंदरूनी दुनिया का सच्चा खाका प्रस्तुत करते हैं. पुस्तक दो अध्यायों ‘पहला दौर’ औद ‘दूसरा दौर’ में बंटी है. इस आत्मकथा में वे अपनी प्रशंसा कम, आलोचना ज्यादा करते हैं. अपनी कमजोरियों और कमियों पर उन्होंने दिल खोलकर लिखा है. इतनी सच्ची आत्मकथा शायद ही किसी फिल्म अभिनेता ने लिखी हो. एक अन्य पुस्तक ‘सिनेमा और स्टेज’ में ग्यारह लेख शामिल हैं. इन लेखों में वह सिनेमा और स्टेज की तुलना करते हैं. क्या अभिनय सीखा जा सकता है? पर सोचते हैं, तो यह भी स्पष्ट करते हैं कि कोई  जन्मजात कलाकार नहीं होता. यहां वह अपने अभिनेता बनने के अनुभवों को भी साझा करते हैं. ‘विमल राय’ और ‘पृथ्वीराज कपूर’ पर लिखे लेख भी बेहद साफ़गोई से लिखे गए हैं. अंत में एक दिलचस्प लेख है ‘भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को पंजाबियों की देन’.

कई बड़े लेखकों की लिखी कृतियों की तुलना में बलराज साहनी का लिखा बहुत ज्यादा न लगे लेकिन विषयों की विविधता और सिनेमा के साथ-साथ अन्य रचनात्मक कार्यों में व्यस्त रहते, इतना लिख पाना भी कम महत्त्वपूर्ण नहीं है. उनकी रचनाओं को पढ़ते हुए हम उनके प्रखर व्यक्तित्व के गहरे संवेदन से वैसे ही प्रभावित होते हैं जैसे उनके अभिनय के विभिन्न रूप देखकर.

अजय कुमार शर्मा, Ajay Kumar Sharma sahitya akademi, sahitya akademi Hindi Editor Ajay Kumar Sharma

Tags: Hindi Literature, Hindi Writer, Literature

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