Opinion: अगले 10 साल में भारत की सेहत सुधारने को तैयार है नरेंद्र मोदी सरकार?
गुजरात के भुज में दो सौ बिस्तरों वाले एक अस्पताल का लोकार्पण करते समय 15 अप्रैल को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister Narendra Modi) ने देश के लोगों को विश्वास दिलाया कि अगले 10 साल में रिकॉर्ड संख्या में नए डॉक्टर तैयार हो जाएंगे. ज़ाहिर है कि उन्होंने यह भरोसा भारत में मेडिकल कॉलेजों (Government Medical College) की संख्या में होने वाली उल्लेखनीय बढ़ोतरी को ध्यान में रख कर ही दिया. कोरोना के प्रति सावधान रहने की अपील करते हुए प्रधानमंत्री ने देश के हर ज़िले में मेडिकल कॉलेज के सरकार के संकल्प का उल्लेख भी किया. इसमें कोई संदेह नहीं है कि मोदी सरकार केंद्र में आने के बाद मेडिकल शिक्षा में उल्लेखनीय सुधार हुए हैं. एम्स का विस्तार हुआ है, मेडिकल की सीटों में इज़ाफ़ा हुआ है, प्रवेश परीक्षा प्रणाली ज़्यादा पारदर्शी और व्यापक हुई है. मेडिकल कॉलेजों के फ़ीस स्ट्रक्चर में स्थिरता आई है. इत्यादि-इत्यादि….
देश के समग्र विकास से जुड़ी अत्यावश्यक बुनियादी ज़रूरतों में से एक मेडिकल शिक्षा को लेकर चर्चा आमतौर पर या तो अस्पतालों के उद्घाटनों के अवसरों पर होती है या फिर देश में बीमारियों का व्यापक प्रकोप फैलने पर. पिछले दिनों मेडिकल शिक्षा दो अभूतपूर्व कारणों से चर्चा में आई. एक कारण रहा कोरोना महामारी की दूसरी लहर के दौरान हुआ इंसानों और इंसानियत का व्यापक नुकसान और दूसरा कारण रहा यूक्रेन पर रूस का हमला. यूक्रेन में डॉक्टरी पढ़ रहे 20 हज़ार से ज़्यादा छात्र-छात्राएं संकट में फंसे, तो भारत सरकार ने बड़ी सूझ-बूझ से उन्हें वहां से निकाला. इस पूरी प्रक्रिया के दौरान भारत में मेडिकल की पढ़ाई की सुविधाओं, फ़ीस स्ट्रक्चर इत्यादि की ओर मीडिया और लोगों का ध्यान गया.
प्रश्न उठे कि क्यों बड़ी संख्या में भारतीय छात्रों को डॉक्टरी पढ़ने विदेश जाना पड़ता है? जवाब मिला कि भारत में मेडिकल शिक्षा बहुत से देशों के मुक़ाबले बहुत महंगी है. इसलिए बहुत से मेडिकल मेधावियों को विदेश जाना पड़ता है. भारत में मेडिकल शिक्षा कितनी महंगी है, यह आसानी से समझा जा सकता है. अपने ही देश में कोई पढ़ाई करने पर छात्र-छात्राओं को कॉलेज की फ़ीस और हॉस्टल का ख़र्चा उठाना होता है. विदेश यात्रा का ख़र्चा उसमें शामिल नहीं होता. लेकिन विदेश में पढ़ाई पर शिक्षा और अपेक्षाकृत ख़र्चीले रहन-सहन के साथ ही साल में एक-दो बार देश लौटने और फिर जाने का ख़र्च भी शामिल होता है. यह सब जोड़-जाड़ कर भी अगर डॉक्टरी पढ़ना विदेश में सस्ता पड़ रहा है, तो फिर वाक़ई मामला चिंतनीय है.
अब नज़र आंकड़ों पर डाल लेते हैं. रूस, जॉर्जिया और यूक्रेन मेडिकल की अच्छी और सस्ती पढ़ाई के लिए दुनिया भर में मशहूर हैं. चीन में भी मेडिकल की पढ़ाई भारत की तुलना में बहुत सस्ती है. साथ ही वहां रहना-खाना-पीना भी सस्ता है. दुनिया भर के आर्थिक रूप से अपेक्षाकृत कमज़ोर जो छात्र-छात्राएं डॉक्टर बनने का सपना देखते हैं, उनमें से ज़्यादातर इन देशों के मेडिकल कॉलेजों का रुख़ करते हैं. भारत के प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में मेडिकल पढ़ने के ले 50 लाख से एक करोड़ रुपये के बीच ख़र्च आता है. लेकिन विदेश में यही शिक्षा 15-20 लाख रुपये में मिल जाती है. रूस में तो इस पर और कम ख़र्च आता है, क्योंकि वहां सरकार फ़ीस में अच्छी-ख़ासी सब्सिडी देती है.
यूक्रेन ले स्वदेश लौटे क़रीब 20 हज़ार मेडिकल छात्रों के भविष्य को लेकर संसद तक में चर्चा हुई. ज़ाहिर है कि जो हालात अभी यूक्रेन में हैं, उन्हें देखते हुए अब कोई भारतीय छात्र-छात्रा बहुत वर्षों तक वहां जाने की सोचेंगे भी नहीं. युद्ध समाप्त होने बुरी तरह ध्वस्त हो चुके यूक्रेन के शहरी इलाक़ों के बुनियादी ढांचे विकास में ही बहुत समय लगना तय है. फिर पढ़ाई शुरू होने और सामान्य जन-जीवन बहाल होने में कई दशक तक लग सकते हैं. ऐसे में मोदी सरकार ने वहां से लौटे मेडिकल छात्रों को भविष्य के प्रति आश्वस्त तो किया है, लेकिन अब समय है, जब भारत में ही मेडिकल शिक्षा के क्षेत्र में क्रांति की जाए.
भारत जैसे देश में जहां बढ़ती आबादी के अनुसार शहरीकरण की गति बढ़ रही है, फिर भी अभी तक ग्रामीण क्षेत्रफल ज़्यादा है. ग्रामीण इलाक़ों में ज़्यादा आबादी होने के बावजूद वहां चिकित्सा सुविधाएं शहरों के मुक़ाबले बहुत कम हैं. मेडिकल की पढ़ाई के अंतिम रिज़ल्ट से ग्रामीण चिकित्सा सेवा को सीधे जोड़े जाने के बावजूद उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. लेकिन मोदी सरकार इस ओर अच्छे क़दम बढ़ा रही है. कमज़ोर वर्ग के लिए पांच लाख रुपये तक के मुफ़्त इलाज की व्यवस्था पीएम आयुष्मान योजना के तहत की जा चुकी है. इसका दायरा बढ़ाया जा रहा है. यह अच्छी बात है, लेकिन असल ज़रूरत इस बात की है कि गांव में प्राथमिक स्तर पर उचित मेडिकल व्यवस्था हो जाए, तो बीमारियों के बिगड़ने की नौबत ही नहीं आएगी और ऐसे में इलाज पर सरकार का ख़र्च भी बचेगा.
राष्ट्रीय जनसंख्या आयोग (एनसीपी) का अनुमान है कि वर्ष 2036 तक 38.6 प्रतिशत भारतीय नागरिक शहरी क्षेत्रों में निवास करेंगे. मतलब यह हुआ कि शहरों की आबादी लगभग 60 करोड़ पहुंच जाएगी. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार 2050 तक भारतीय शहरी आबादी 87.7 करोड़ तक पहुंच जाएगी. यानी भारत में शहरी आबादी 2050 तक दोगुनी हो जाएगी. सीधा सा मतलब हुआ कि शहरी क्षेत्रों में भी मेडिकल सुविधाएं बेहताशा बढ़ाने की ज़रूरत होगी, जिसका ध्यान अगर अभी से नहीं रखा गया, तो गांवों के साथ-साथ भारत के शहरियों को भी स्वास्थ्य के लिए भारी क़ीमत चुकानी होगी.
हाल ही में दिल्ली हाई कोर्ट ने भारत में मेडिकल सीटों की कमी को लेकर गंभीर चिंता जताई थी. भारत जैसी विशाल आबादी वाले देश में आज़ादी के तुरंत बाद इस बारे में क्यों नहीं सोचा गया, यह हैरत में डालने वाली बात है. कुछ रिपोर्टों के मुताबिक़ वर्ष 2021 तक भारत में सरकारी मेडिकल कॉलेजों में एमबीबीएस की सीटों की संख्या मात्र 44 हज़ार, 555 थी. इन आंकड़ों में थोड़ी वृद्धि हुई है. केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण राज्य मंत्री प्रवीण पवार ने हाल ही में बजट सत्र के दौरान राज्यसभा में जानकारी दी कि वर्ष 2014 से पहले देश में एमबीबीएस की कुल सीटें 51 हज़ार, 348 थीं, जो अब बढ़ कर 89 हज़ार, 875 हो गई हैं. यानी क़रीब सात साल में मेडिकल सीटों में 75 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. 2014 तक देश में कुल 387 मेडिकल कॉलेज थे, जिनकी संख्या अब बढ़ कर 596 हो गई है. भारत में सभी प्रदेशों और केंद्र शासित राज्यों में कुल 742 ज़िले हैं. जिस तरह बड़ी तहसीलों को ज़िले का दर्जा देने का क्रम जारी है, इस लिहाज़ से अगले एक दशक में अगर हम देश में ज़िलों की कुल संख्या क़रीब 800 भी मान लें, तो केंद्र सरकार के मौजूदा लक्ष्य के अनुसार देश में जल्द ही क़रीब 800 (हर ज़िले में एक) मेडिकल कॉलेजों का लक्ष्य हासिल करना है. मोदी सरकार अपने लक्ष्यों के प्रति जितनी गंभीर रहती है, इस लिहाज़ से तय है कि देश के हर ज़िले में कम से कम एक मेडिकल कॉलेज का लक्ष्य हासिल हो ही जाना है. लेकिन बड़ा सवाल यह है कि क्या ऐसा हो जाने पर भी में डॉक्टरों की संख्या आबादी के अनुपात में हो पाएगी?
भारत में अभी 1456 लोगों पर एक डॉक्टर है, जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन मानता है कि प्रति एक हज़ार आबादी पर एक डॉक्टर उपलब्ध होना चाहिए. लेकिन क्या डॉक्टरों की संख्या बढ़ा कर ही पूरी आबादी के उत्तम स्वास्थ्य की कामना की जा सकती है? अच्छी बात है कि डॉक्टरों की संख्या बढ़ाने यानी मेडिकल सीटें बढ़ाने के मामले में मोदी सरकार सार्थक प्रयास कर रही है. लेकिन मेडिकल कॉलेजों की फ़ीस कम करने पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए. इस ओर एक अच्छा काम हाल ही में हुआ है. निजी मेडिकल कॉलेज सत्र के बीच में फ़ीस नहीं बढ़ा पाएंगे. पहले ऐसा नहीं था. इसके साथ ही ऐसे कॉलेज पहली 50 मेडिकल सीटों के लिए सरकारी कॉलेजों जितनी सीटें ही वसूल पाएंगे. यह निर्णय निजी मेडिकल कॉलेजों में सरकारी कोटे से आए छात्र-छात्राओं के मामले में लागू होगा. लेकिन साथ ही गुणवत्ता पूर्ण सरकारी अस्पतालों की संख्या बढ़ाने, समर्पित डॉक्टर और नर्सिंग स्टाफ़ तैयार करने, सभी सरकारी अस्पतालों में अच्छे आधुनिक स्वास्थ्य उपकरण उपलब्ध कराने और पूरे स्वास्थ्य तंत्र की सतत मानवीय निगरानी की भी बहुत ज़रूरत है. कॉलेज बढ़ाने के साथ ही जब तक मेडिकल की पढ़ाई का ख़र्च कम नहीं किया जाएगा, तब तक हर भारतीय छात्र-छात्रा के मन में देश में रह कर ही मेडिकल की पढ़ाई की इच्छा जागृत नहीं होगी. इसके लिए कड़े नियम बनाने होंगे या फिर रूस की तरह सब्सिडी पर विचार करना होगा या फिर ऐसी सब्सिडी को आसान और सस्ते कर्ज़ के रूप में भी लिया जा सकता है.
(डिस्क्लेमर: ये लेखक के निजी विचार हैं. लेख में दी गई किसी भी जानकारी की सत्यता/सटीकता के प्रति लेखक स्वयं जवाबदेह है. इसके लिए News18Hindi किसी भी तरह से उत्तरदायी नहीं है)
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