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दास्तान-गो : गुजरात में पारसियों को ‘दूध मिला’ और वे ‘शक्कर की तरह’ घुल गए हिन्दुस्तान में!

दास्तान-गो : किस्से-कहानियां कहने-सुनने का कोई वक्त होता है क्या? शायद होता हो. या न भी होता हो. पर एक बात जरूर होती है. किस्से, कहानियां रुचते सबको हैं. वे वक़्ती तौर पर मौज़ूं हों तो बेहतर. न हों, बीते दौर के हों, तो भी बुराई नहीं. क्योंकि ये हमेशा हमें कुछ बताकर ही नहीं, सिखाकर भी जाते हैं. अपने दौर की यादें दिलाते हैं. गंभीर से मसलों की घुट्‌टी भी मीठी कर के, हौले से पिलाते हैं. इसीलिए ‘दास्तान-गो’ ने शुरू किया है, दिलचस्प किस्सों को आप-अपनों तक पहुंचाने का सिलसिला. कोशिश रहेगी यह सिलसिला जारी रहे. सोमवार से शुक्रवार, रोज़… 

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जनाब, ये यही कोई 1350-1400 साल पहले की बात होगी. उन दिनों फारस की खाड़ी (आज का ईरान) में एक बड़ा धनी-मानी समाज होता था. बल्कि ‘था’ क्यूं कहना चाहिए, वह समुदाय आज भी मौज़ूद है. बस, जगह बदल गई है. तो जनाब, ये समाज अपने मज़हबी आक़ा ज़रतोस्त (ज़रथुष्ट्र) की बातों पर अमल किया करता है. वह सूर्य और अग्नि की पूजा किया करता है. लड़ाई-झगड़ों से दूर रहना उसके खून में है. चैन-ओ-अमन उसकी तहज़ीब है. लेकिन इस समाज को वहां फ़ारस में किसी की नज़र लग गई. या सीधे तौर पर कहें तो उनकी, जो बुतों की पूजा की ख़िलाफ़त किया करते हैं. उन लोगों ने इस अमन-पसंद समाज के लोगों के साथ इतनी मार-काट की, इतनी मार-काट की कि आख़िरकार उन्हें फारस की खाड़ी छोड़नी पड़ी. लेकिन छोड़ तो दी, पर अब जाएं कहां? तो उन्हें अपनी जड़ें याद आईं. हिन्दुस्तान. सो, वे उसी तरफ़ चल दिए.

अब जिन्हें कोई भरम होता हो कि हिन्दुस्तान आख़िर ज़रथुष्ट्र की बातें मानने वालों का जड़-मूल कैसे? तो उन्हें  बता दें कि हिन्दुस्तान की ज़मीन पर जिस सनातन का सबसे पहले प्रचार हुआ, उसके चार वेदों में पहला है, ‘ऋग्वेद’. इस ‘ऋग्वेद’ का पहला ही सूक्त है, ‘ॐअग्निमीळे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम्हो। तारं रत्नधातमम्।।’ मतलब ‘हे अग्निदेव! हम आपकी स्तुति करते हैं. आप यज्ञ के पुरोहितों, सभी देवताओं, सभी ऋत्विजों, होताओं और याजकों को रत्नों से विभूषित कर उनका कल्याण करें’. यानी अग्नि की पूजा सनातन के मूल में है. और अग्नि के मूल में सूर्य. तो ज़रथुष्ट्र ने जब तमाम देवी-देवताओं की पूजा की ख़िलाफ़त करते हुए सनातन से अलग राह ली, तब भी उन्होंने ज़ोर इस पर दिया कि अपने मूल को याद रखिए. क्योंकि वही इक़लौता सच है. वही आपकी तरक़्क़ी, आपकी बढ़त का एक आधार है. सो, इस समाज के लोगों ने वही याद रखा.

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और फिर वे फ़ारस से उखड़े तब भी चलते-चलते अपनी जड़ों की तरफ़, हिन्दुस्तान ही लौटे. बताते हैं, ये लोग समंदर के रास्ते से आए थे. यहां उन्होंने सबसे पहले वहां क़दम रखे, जिसे आजकल दमन-दीव कहते हैं. ये बात है, क़रीब 1300 साल पहले की. कहते हैं, उस वक़्त इस इलाक़े पर नज़दीकी वलसाड रियासत के राजा जादव राणा का राज होता था. मुमकिन है, वे यादवों के ख़ानदान के रहे हों. और इलाक़ाई बोली में ‘यादव’ से उन्हें ‘जादव’ कहा जाने लगा हो. क्योंकि, हिन्दुस्तान की तमाम-किताबों में ऐसा लिखा मिलता है कि गुजरात की यही धरती थी, जिस पर श्रीकृष्ण ने यादवों का राज-काज जमाया था. और ये भी कि श्रीकृष्ण के इस धरती से जाने के बाद भी यादवों का ख़ानदान पूरी तरह ख़त्म नहीं हुआ था. सो, बहुत मुमकिन है ये कि ‘जादव राणा’ ऐसे ही कहीं यादवों के ख़ानदान से जुड़ते हों, जिन्हें कई किताबों में ‘जदी राणा’ भी कहा गया है.

तो जनाब, ‘जादव राणा’ या ‘जदी राणा’ के बारे में कहा जाता है कि वे बड़े नरम-दिल इंसान होते थे. उनकी रियासत में कभी कोई आसरा मांगता, तो वे उसे कभी मना नहीं करते थे. बस, अपने तरीके से उसका कुछ इम्तिहान लिया करते थे. ताकि मुतमइन हो सकें ये आदमी, ये समाज जो आसरा मांग रहा है, आगे उनके अपने लोगों के लिए मुसीबत तो नहीं बनेगा कहीं. लिहाज़ा, फ़ारस से बचते-बचाते हिन्दुस्तान पहुंचे ‘फ़ारसी (पारसी) समाज’ के लोगों ने जब ‘जदी राणा’ से आसरा मांगा, उनसे पनाह मांगी, तो उन्होंने उन्हें भी मना नहीं किया. बल्कि उनका इम्तिहान लिया. कहते हैं, ‘जदी राणा’ ने ‘फ़ारसी समाज’ के लोगों के पास दूध से भरा हुआ गिलास भिजवाया था. वे शायद देखना चाहते थे कि ये लाेग इस दूध से भरे गिलास का करते क्या हैं? ‘फ़ारसियों’ के तंबू में उस वक़्त जितने लोग थे, वे ‘जदी राणा’ की इस पेशकश (भेंट) को देख अचकचा गए थे.

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लेकिन तभी कुछ बुज़र्ग फारसियों ने दूध भरा गिलास भेजने के पीछे छिपे संदेशे का समझने की कोशिश की. शायद इन बुज़ुर्गों में कुछ लोग मज़हबी मामलों के जानकार भी थे. उन लोगों ने मशवरा किया और दूध का गिलास लेकर आए राजा के फ़ौजियों के हाथ में चीनी से भरी कटोरी रख दी. शक्कर. और उन फ़ौजियों से कहा कि ये दोनों चीज़ें ले जाकर हमारी तरफ़ से राजा के सामने बतौर-नज़राना पेश कर दें. फ़ौजियों ने वही किया. दूध से भरे गिलास को शक्कर की कटोरी के साथ राजा के सामने पेश कर दिया. यह देख ख़ुशी से राजा की बांछें खिल गईं. क्योंकि पनाह मांगने वाले ‘फारसियों’ का ज़वाब में भेजा गया संदेशा साफ़ था कि वे ‘इस राज में उसी तरह घुल जाएंगे, उसमें मिठास बढ़ाएंगे, जैसे दूध में शक्कर’. राजा ने उन्हें पनाह देने की मंज़ूदी दे दी. कहते हैं, तब ‘फारसियों’ को जिस इलाके में बसाया गया, उस जगह को उन्होंने संजन नाम दिया था.

फ़ारसी समाज की एक पाक-किताब होती है, ‘क़िस्सा-ए-संजन’. उसमें इस तरह के तमाम दिलचस्प क़िस्से दर्ज़ हैं. ये बताते हैं कि फ़ारसी (पारसी) समाज कैसे वक़्त के साथ-साथ सिर्फ़ ‘जादव राणा के गुजरात’ में नहीं, पूरे हिन्दुस्तान में, दूध में शक्कर की तरह घुल गया है. हिन्दुस्तान की मिठास बढ़ा रहा है. इसी किताब में वह वज़ह भी बताई गई है कि जहां फ़ारसियों को पहली मर्तबा बसने दिया गया, उसे उन्होंने ‘संजन’ नाम क्यों दिया? दरअस्ल, फ़ारस की खाड़ी में ही ‘संजन’ नाम की एक जगह होती है. वह ज़रथुष्ट्र की बातें मानने वाले इस समाज के लोगों के लिए तीरथ की तरह होता था. मगर यह समाज फ़ारस से उखड़ा तो वह तीरथ भी पीछे छूट गया. लिहाज़ा, उसकी याद में उन्होंने इधर हिन्दुस्तान के गुजरात में ‘संजन’ बसा दिया. इतना ही नहीं, उन्होंने अपने साथ ‘संजन’ से लाई पवित्र-अग्नि को भी यहां ‘हिन्दुस्तान के संजन’ में स्थापित किया. और अपने उपास्य अग्नि-देव का मंदिर भी बनवाया. कहते हैं, तभी से यहां हर साल 15 नवंबर की तारीख़ पर दुनियाभर के पारसियों का बड़ा जमावड़ा हुआ करता है. संजन में अपने पुरखों के आने, पैर जमाने के मौक़े को याद करने के लिए. वैसे, इस तारीख़ पर भी किसी को भरम होता हो, उन्हें याद दिला दें कि जिस वक़्त फारसी समाज संजन में बसाया गया, तब अंग्रेजों का कैलेंडर और उसकी तारीख़ें चलन में अच्छे से आ चुकी थीं.

आज के लिए बस इतना ही. ख़ुदा हाफ़िज़.

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